कोरा कागज़ लिए बैठी थी,
दिल में बहुत कुछ दबाए बैठी थी,
कभी चार हर्फ़ लिखती, और दो हर्फ़ मिटा देती…
कभी सोच सोच लिखती, कभी अनर्गल छाप देती।

ज़िंदगी की आपा धापी में कोरा कागज़ पीला पड़ गया,
कुछ तुड़ा मुड़ा सा, सीला सीला सा रह गया।

वो उफ़ान जो सीने में धधक रहा था, कहां उंडेल पाई कागज़ पे,
उन उदास शामों की खामोशी चीख रही थी काग़ज़ पे।

कहीं बेबसी से दम तोड़ते लफ़्ज़ नज़र आए,
कहीं बेबाकियों से लबरेज़ लफ़्ज़ खिलखिलाते नज़र आए।

आधे अधूरे हर्फ़ यहां वहां से झांकते दिखे,
वो आंसुओं से धुंधले हुए लफ़्ज़ भी दिखे।

लफ़्ज़ों से लुका छिपी खेलते ज़िंदगी तमाम हुई,
और कोरे कागज़ की भी आखिर इक शाम तमाम हुई।

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