तप्त धरा, विकल हुए मृग -खग,
घन घोर जलद रहे उमड़ घुमड़ ।

बरस पड़े घनघोर मेघ,धरा हुई कुछ शांत,
हरियाली की चादर देख ,पुलक उठे हृदय क्लांत।

हे धरा, क्या हम कभी तुझ से उऋण हो पाएंगे ,
तेरे दिए संस्कारों से क्या हृदय अपने सींच पाएंगे ?

तेरे स्नेहिल, सरल उर में ,हम नित्य गरल हैं सींचते,
तू फिर भी न कठोर हो पाती, हम तुझे विष पाश में हैं भींचते ।

रूप तेरा फिर से सजे, हरियाली चूनर ओढ़ के ,
क्लेश , संताप ,दुख कठिनाई, उड़ जाएं तुझे छोड़ के ।

फिर हरित धरा पर आगमन हो उल्लास का ,
आओ अब समय हुआ, फिर नए प्रयास का ।

इला पचौरी

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