फिर उसी कूचे में जाने को दिल चाहता है,
वही फुरसत , वही सुकून चाहता है।
वो मासूम से इत्तेफ़ाक, वो नन्हें से ख्वाब …
उन्हीं प्यारी नींदों में लौट जाने को दिल चाहता है।

आजमाइश नहीं थी उस दौर में ,
नुमाइश नहीं थी उस दौर में….
ना मुखौटे, ना ही नकाब बिका करते थे,
उस बेलौस ज़माने में लौट जाने को दिल चाहता है।

मोहब्बत से भरे वो गर्म निवाले,
अपनापे से भरे वो चाय के प्याले,
उस छोटे से आंगन में लौट जाने को दिल चाहता है ।

हिकारत नहीं थी किसी की निगाह में,
नफ़रत नहीं थी, किसी की जुबान में ,
उस सादी सी दुनिया में लौट जाने को दिल चाहता है।

वो इबादत की दुनिया, वो ईमान की दुनिया,
वो हंसते खिलखिलाते बचपन की दुनिया ,
अखलाक़ और अदब में डूबने को दिल चाहता है,
फिर उस कूचे में जाने को दिल चाहता है।
इला पचौरी

किरदार
मेरा किरदार बदल रहा है, कहानी बदल रही है।
रूह की भीतरी परतों में कोई कहानी मचल रही है।

कैसे बताऊं ,के क्या किरदार है मेरा ?
देखो ना ज़िंदगी की रवानी बदल रही है।

जब तक जामा पहनूं एक नए किरदार का,
देखती हूं फिर से मेरी कहानी बदल रही है।

फितरत है आदमी की किरदार बदलने की,
पल पल में यहां आदमी की फितरत बदल रही है।

काश ! कहीं तो थम जाती इस तक़दीर की गाड़ी,
किरदार को कैसे थामूं, गाड़ी पटरी बदल रही है।

काला सफेद रंग लूं मेरे किरदार का जामा,
रंगीन कपड़ों में बंद मेरी रूह तड़प रही है।

ना हो पाएगा नाटक अब भला मानस बने रहने का,
अपने असली रंग दिखाने को तबियत मचल रही है।

इला पचौरी

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