एक पिंजरे में क़ैद थी वो मैना,
कहती रहती थी, गाती रहती थी … कुछ करूंगी, कुछ कर के दिखाऊंगी।
ना वो पिंजरे से बाहर निकल पाई और न ही कुछ कर पाई।
लो !वो ऐसा बोलती बोलती चल बसी पर कुछ कर ना सकी.
कुछ ऐसा ही हाल है हर उस औरत का जो अपने बनाए पिंजरे में कैद है ।
औरत सर्वगुण संपन्न है, वो मां भी है, बेटी भी ।
वो शक्ति भी, सहनशीलता की मूर्ति भी ।
वो कितने ही मर्दों की प्रेरणा है,
कुछ बच्चों का गुरूर भी ।
सबके लिए करती रहती है सब कुछ ,
परिवार की ढाल वो, परिवार का मान वो ।
किन्तु जब भी बारी आती है स्वाभिमान की ,
अपनी इच्छाओं की…
नारी चुप हो जाती है,
खुल के अपनी बात क्यों नहीं कह पाती है ?
नारी तेरा स्वाभिमान कहां रह गया ?
बच्चों को पाठ पढ़ाती रही स्वाभिमान का ,
क्या तुझे खुद इसका मतलब समझ आया ?
अंत समय आएगा ,तुझे कौंचता जायेगा …
तेरा चुप रहना तुझे बहुत सताएगा ।
ओ नारी तू तोड़ दे अपने बनाए इस पिंजरे को ।
स्वाभिमान की हवा में सांस ले,
अब तो खुल के जी ले।
अब तक जीवन के सभी काम दूसरों के लिए करती आ रही है,
ज़रा रुक के सोच , तू खुद के लिए क्या कर रही है ?
थोड़ा ठहर, सांस ले….
गर्व से गर्दन तान ले….
तू जीना सीख खुद के लिए,
मत कर समझौता,
तू लड़ जा स्वाभिमान के लिए।