एतबार की हद कोई कभी न समझ सका,
चंद पलों में कभी जम गया, कभी ताउम्र ना बन सका।

वो मेरा साया ,मेरा हमसफर ही था,
जो लाख वादे कर के भी मेरा ना बन सका ।

किस से जाके कहूं कि मेरा एतबार टूट गया,
एक बार जो छन्न से टूटा,फिर कभी न जुड़ सका।

दिल को आदत सी हो गई है धोखे खाते रहने की,
हमने लबों को सी लिया, ना खुल के वो रो सका।

इश्क़ के मरकज़ में बुत बन के बैठ गया,
वो हिज़्र का मारा आशिक विसाले यार ना पा सका।

पलट के पूछा नहीं तुमने छोड़ जाने के बाद,
फिर भी पूछते हो क्यूं एतबार न बन सका ।

इला पचौरी

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version