कहीं किसी मोड़ पर
मिल गई मुझे एक बूढ़ी स्त्री….
कुछ घबराई,कुछ शरमाई
कुछ सहमी सी ,डरी डरी।
अरे! तुम्हारी आँखे क्यों हैं नम ?
सुनते ही लिपट गई मेरे गले से, फूट फूट रोने लगी,
भर्राए गले से व्यथा अपनी कहने लगी।
मैं हूं सोने की चिड़िया, लेकिन अब मेरी चमक खो सी गई है,
आज मेरी कीमत तांबे के बर्तन से भी कम हो गई है।
मैं कल भी काबिल थी, आज भी काबिल हूं,
लेकिन हालातों ने मुझे कहीं का रहने नहीं दिया,
मेरे आत्मसम्मान को दर ब दर ठोकर खाने के लिए छोड़ दिया।
यूं तो आज मैं पिचहत्तर साल की हो गई हूं,
लेकिन रहती हूं डरी डरी,
सुनना चाहते हो तो सुन लो ,आज बात करूंगी खरी खरी।
अंग्रेजों के चुंगल से हो तो गयी थी आज़ाद,
किंतु पुरानी सड़ी गली मानसिकता से आज़ादी न मिली,
यूं तो उड़ने का मौका भी मिला भरपूर,
किंतु ईर्ष्या, जलन, क्रोध ने आसमान किया मुझ से दूर।
अत्याचार , लालच, क्रूरता ने मेरे पंख कुतर दिए ,
मेरी उड़ान के सारे रास्ते बंद कर दिए।
क्या आज मेरे जन्मदिन पर करोगे मुझ से एक वादा ?
क्या आज पक्का करके दिखा पाओगे अपना इरादा ?
हर लड़की आसमां में बेखौफ उड़ेगी
खुली आँख से सपने देखेगी, पूरे भी करेगी।
हमारी युवा पीढ़ी देश का मान रखेगी, देश की शान बनेगी।
सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा, सिर्फ गीत ही नहीं हकीकत में करके दिखाएंगे
मज़हब के नाम पर एक दूसरे को नीचा नहीं दिखाएंगे।
आपस के बैर को मिल जुल कर सुलझाएंगे।
बस इतनी सी आरज़ू के सहारे अगले 25 वर्ष, अमृत का महोत्सव मनाएंगे।
मां भारती और मेरी यही पुकार हर भारतीय तक पहुंचाएंगे।
जय हिंद।
एकता सहगल मल्होत्रा