यकीन की चिड़िया, दर ब दर उड़ रही है,
किस दरख़्त पर बसेरा बनाए, परेशान सी सोच रही है।
ना जाने कब दरख़्त की डाली काट डाली जाए,
ना जाने कब घोंसले से वो निकाली जाए ?
जंगल, सहरा घूम आई ,बड़ी कोठियों में रह कर देख आई,
यकीन की चिड़िया कहां कहां भटक आई,
कोई ठौर न मिला, ना मिला कहीं ठिकाना ….
सोच समझ कर चुग रही है वादों से भरा हुआ दाना।
वो ज़माने कहां गए जब बेफिक्र हो के उड़ा करती थी,
वो ज़माने कहां गए जब वो बगिया में चहका करती थी।
तिराहों चौराहों पर डाले गए दाने चुग लिया करती थी,
किसी भी छज्जे पर रखा पानी पी लिया करती थी।
कहीं फंस ना जाऊं किसी के बिछाए जाल में ,
आज डर डर के पंख खोलती है,
यकीन की चिड़िया अब चोंच भी कहां खोलती है।
किस पे यकीन रखूं, किस से बच के चलूं,
किस से बोलूं या अब मैं चुप ही रहूं,
यकीन की चिड़िया यही सोच रही है।
यकीन की चिड़िया यही सोच रही है।
एकता एवं इला द्वारा सम्मिलित रूप से रचित
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