कैसा ये शोर शराबा है, आज औरत के नाम की तूती कैसे गूंज रही है?
पूरे साल मैं जुटी रहती हूं घर गिरस्ती, दफ़्तर और बच्चों में ,
कहां बढ़ाऊं, कहां से काटूं … फंस के रह गई घर के खर्चों में ।
होश नहीं रखता खुद का , चक्की सी पिसती रहती हूं।
आज ज़रा सा मान मिला तो गुब्बारे सी फूल रही हूं।
रोज़ संसार के चक्र में धुरी सी घूमती हूं,
फिर तुम मुझे एक दिन सम्मान देने के बहाने हाशिए पे ला पटकते हो,
और मैं ?
मैं एक मुस्कान चिपकाए, झूठी विजय पर झूमती हूं।
क्या करूं, औरत हूं ना ? जल्दी से विश्वास कर लेती हूं,
तुम कह देते हो और मैं मान लेती हूं।
तुम एक दिन सम्मान दे कर मुझे साल भर के लिए खरीद लोगे,
और मैं एक दिन का सम्मान ले कर फिर से पुराने ढर्रे पे लौट जाऊंगी।
इला पचौरी