है माँ दुर्गे
हूँ अवतार मैं तेरा
फिर क्यों क्षण क्षण
हुआ तिरस्कार मेरा
तुझे छिपने को मिली जगह
अर्द्ध कुवारी में
आई तू भैरो मारने
शेर की सवारी में
क्यों नहीं मिल पायी
ऐसी गुफ़ा हर माँ को
क्यों तुमने बनाया पापी
हर नर को हर जाँ को
है तू माता जगत की
फिर भी तेरी बच्चियाँ
हर पल देशत में रहती
पलकों से अश्रु की गंगा बहती
क्यों तेरी ही आरती में
ज़िक्र होता केवल नर का
क्यों सिर्फ पुरुष को मिले मेवा
और स्त्री के हिस्से आये सेवा
कब होगा इस बेरुख़ी का अंत
क्या सिर्फ नवरात्र में ही नारी को
मिलेगा सम्मान अनंत
जीवन भर भय में रहें
लुटने बीच बाज़ार में
ज़िंदगी के नव रस कहाँ
आते हमारे हाथ में
बस भय, क्रोध और रौद्र आता
सब्र अब ख़त्म हुआ जाता
दिलवा नारी को भी मान – सम्मान
ग़र हम रूठीं तो पूर्षो के
जन्म पर ना लग जाए पूर्ण विराम
एकता सहगल मल्होत्रा